Monday 11 August 2014

अश्आर-२

 बद-ग़ुमानी बाग़बान की बराए ख़ुदा अपमान है,
ख़ाक-ए-सोहबत पा के ही इंसां जहाँ में महान है


ज़ख़्म-ए-रूह कुरेदते क्यों हो
मैं जो न हो सकूँ, कहते वो क्यों हो

इक ग़म को सीने से लगा रक्खा है,
शेखी, ऐ शैख़ इतनी, बखेरते क्यों हो

मैं तो आज भी अपने ही आप में गुम था
हयात-ए-हवादिस से सताते क्यों हो

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