Sunday 9 March 2014

पाँच तीन चौदह

करार ए मोहब्बत में जो दोनो जहाँ भूल बैठे हैं
दुश्वार है ख़ुदा परस्ती का इंतिसाब अब हमें ।

यूँ बिन बताए ग़ायब न हो जाया करो
तुम्हारी आवाज़ की आदत सी हो गई है हमें ।

तुम्हारा इन्तज़ार मेरी इबादत है
ऐसी इबादत का क्या कि फल की इच्छा है हमें ।

बदहवास रोए चले जा रहे हैं
ये कैसी बदली थी कि गीला कर गई हमें ।

अब्र में तेरी लुकाछिपी से वाकिफ़ हैं
इल्तजा है कि मुख्तसर सा चरागाँ दे हमें ।

मंज़िल से पहले दम मेरा कर्म नहीं है
अभी तो बहुत दूर जाना है हमें ।

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