Thursday 27 March 2014

सवालों के जवाब - और सवाल

हार या जीत ?
ज़िन्दगी क्या और कुछ भी नहीं ?


भगवान या शैतान ?
इंसान होना क्या काफी नहीं ?


ज़मी या आसमान ?
इनके बीच क्या कुछ भी नहीं ?


इस पार या उस पार ?
दरिया का जीना क्या जीना नहीं ?


आता है या नहीं आता ?
जानना ज़रूरी नहीं ?


रुकना है या चलना है ?
सोचना ज़रूरी नहीं ?


सही है या ग़लत ?
छोड़ ना । नहीं ?


लायक हूँ या नालायक ?
मैं तो कुछ भी नहीं

Sunday 16 March 2014

दिल

ये क्या जलता सा रहता है सीने में
बुझता है तो बस अश्कों की बारिश में

पत्थर की कायनात के क्या कहने
भर दिया शीशा एक मेरे ही सीने में

खिलौना समझकर खेलते हैं खेलने वाले
हम टूट जाते हैं बस यूँ ही खेल खेल में

काम से काम रखना भी हुनर है
क्यों रोता है फिर ये सुर्ख़ रंग में

कच्चा खिलाड़ी न समझे कोई
पाले नहीं बदलते हम खेल में


Thursday 13 March 2014

ठीक ठीक लगा लो

ये सब उसी का किया धरा है ।
न मेरी आँख बंद करता,
न मेरा पैर कुर्सी से टकराता,
न मैं दर्द से कराहता ।
अब बाम लगाकर बैठा हूँ ।
भला ये कहाँ का इंसाफ है ।

सुना है सारे जगत का है वो कर्ता धर्ता
उसकी मर्ज़ी बिना हिलता नहीं कोई पत्ता ।
फिर उसकी ऐसी मर्ज़ी क्यों ?
मैंने किसका क्या बिगाड़ा ।
अब पिछले जन्म में कोई ग़लती की भी है,
तो कोई बात नहीं ।
इंसान तो ग़लतियों का पुतला है ।

ठीक ठीक लगा लो
कुछ ले दे के देख लो

इसमें नाराज़ होने की क्या बात है ।
इसमें सज़ा देने की क्या बात है ।
अच्छा ........
इंसान पैदा हुआ है
तो परेशान तो होगा ।
कोई कम तो कोई ज़्यादा ।

तो भी ठीक ठीक लगा लो
कुछ ले दे के देख लो ।

ओहो....
इंसान की नियति है आत्मोन्नति ।
आत्मा उसी का हिस्सा है
जब तक आत्मा पक कर
उस जैसी नहीं होती,
ये जन्म मरण का चक्र चलता रहेगा ।
आत्मा को कर्मों से पका रहे हैं ।

जाने कब पकेगी ?
हमारी दाल गलेगी ?

कम आँच में पकी तो
खीर भी लज़्ज़तदार होती है ।
ज़रा आँच तेज़ करो न ।

ठीक ठीक लगा लो
कुछ ले दे के देख लो

मेरे पास वक्त कम है
और काम बहुत है ।

पकने के लिए खीर नहीं आत्मा है ।

दर्द कुछ कम हुआ लगता है
कुछ पका पका सा लगता है ।

Wednesday 12 March 2014

गुनहगार

कूड़ेदान के बाहर

कचरा डालने वाला,

उतना ही गुनहगार है

जितना घोटालों में लिप्त सियासतदार ।

क्या सोच रहे हैं हज़रात


"मैने तो कचरा सड़क पर डाला था " ।

Sunday 9 March 2014

पाँच तीन चौदह

करार ए मोहब्बत में जो दोनो जहाँ भूल बैठे हैं
दुश्वार है ख़ुदा परस्ती का इंतिसाब अब हमें ।

यूँ बिन बताए ग़ायब न हो जाया करो
तुम्हारी आवाज़ की आदत सी हो गई है हमें ।

तुम्हारा इन्तज़ार मेरी इबादत है
ऐसी इबादत का क्या कि फल की इच्छा है हमें ।

बदहवास रोए चले जा रहे हैं
ये कैसी बदली थी कि गीला कर गई हमें ।

अब्र में तेरी लुकाछिपी से वाकिफ़ हैं
इल्तजा है कि मुख्तसर सा चरागाँ दे हमें ।

मंज़िल से पहले दम मेरा कर्म नहीं है
अभी तो बहुत दूर जाना है हमें ।