Tuesday 4 February 2014

कुत्ते का जीवन या कुत्ते की मौत

यूँ ही अचानक मेरे पालतू  लेकिन अंग्रेजी कुत्ते ने  मेरी तर्ज़नी  उंगली को 'बर्ड फ्लू'  के चलते एक पांच सितारा होटल के वरिष्ठ खानसामे की तरह बेझिझक चख लिआ । चखना क्या था कि तंदूरी मुर्ग कि टांग जानकार 'पीस'  ले लिआ । रक्त कि धारा प्रवाह बह निकली, साथ ही मेरी जान भी गले तक जा अटकी । मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था कि जिस अदने प्राणी को वफादारी की मिसाल जाना जाता है, जिसके मालिक के लिए जान देने के किस्से सर्वविदित हैं, और तो और जिसे मैने अपने पुत्र के रूप में पाला, यहाँ तक कि भगवान का दर्जा दे डाला उसने मेरे विश्वास को चकनाचूर कर दिया । इस अनहोनी से मन परेशान हो गया । विचार कौंधा, अगर पालतू कुत्ता भी वफादार नहीं तो इंसान से कैसी उम्मीद ।  यों भी मैं इंसान को कुत्ते से ऊपर का दर्ज़ा नहीं देता लेकिन फिर भी इंसान का बच्चा होने पर, खुद को कम से कम कुत्ते से कम नहीं समझता । बचपन में सुना था, पढ़ा था कि कुत्ते के काटने पर पागल हो जाते हैं । सारा पाठ सहसा मेरी नज़रों के आगे घूम गया । क्या मैं भी ? पागल कहलाउँगा ? अच्छा होगा या बुरा ? मैं समझ नहीं पा रहा था क्या मैं अब पागल हो जाउँगा या मैं पहले से ही पागल हूँ ? एक तरफ ये जीवन का जंजाल छूटने की खुशी थी तो दूसरी ओर इस पागल से जीवन का मोह । क्या दुनियाँ अचानक उल्टी दिखने लगेगी ? या फ़िर पागल के पागल होने पर पागल ठीक हो जाएगा ? इसी पागलपन की उधेड़बुन में मैंने देखा मेरा लाडला, कातर नज़रों से ग्लानि भरे अंदाज़ में मेरा दूसरा हाथ चाट रहा है । अचानक मेरा विश्वास जगा । निरीह सा जानवर मुझे जीवन की सीख दे गया।

दुनियाँ में देर है अंधेर नहीं ।

मैं फिर एक कुत्ते का जीवन जीना चाहता हूँ जिस से कुत्ते की मौत मरना न पड़े । इंसान और कुत्ते में शायद यही असमानता है ।

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