Monday 6 October 2014

ग़ज़ल -16 आसानियाँ हैं नज़र में उसकी

आसानियाँ हैं नज़र में उसकी , कि मुश्किलों से जो बेखबर है
हार बैठा है जो दम अब , दवा दुआ भी सब बेअसर है


बाद मुद्दत के मुसलसल दिल का मंज़र रक़्स में है
रहनुमाई और रुस्वाई का आलम बेसबब है

अर्थ है जीवन का चलना , सिर्फ चलते रहना है
रुक गया जो राह-ए-मंज़िल दर-असल वो बेहुनर है


बेरुख़ी बे-इंतिहा है , बेकरारी बाहमी
आए हैं महफ़िल में मानो इस तरह कि बेतलब हैं


 है काम मुश्किल , चले गुज़ारा , अना को महफ़ूज़ , रख के चलना
झुके न सर जिस किसी के आगे , नज़र में सब की वो बेअदब है


Friday 3 October 2014

ग़ज़ल - 15 अपनी आँखों में कभी

अपनी आँखों में कभी नज़र को पढ़ के देखिए
अक़्स क्या उभरता है आईने की सोचिए

धब्बे क्या मिट सकेंगे दामन से खून के
सूरत तो धो के आ गए सीरत की सोचिए

क्या क्या करेंगे साफ इस गर्दिश के दौर में
दफ़्तर व रहगुज़र तो हुई दिल की भी सोचिए

दश्त-ए-ग़म की तीरगी , ज़ब्त-ए-ग़म का शरार
इंतख़ाब दुरुस्त कर , इंतिसाब की सोचिए

( दुख के जंगल का अँधेरा and चिंगारी of tolerance,
  Correct your choice and think abt surrender)

रावण के सर भी झुक गए इंसां के कर्म देखकर
किस की विजय हुई किस पर , इस की भी तो सोचिए



Apni aankho'n mein kabhi nazar ko padh ke dekhiye
Aks kya ubharta hai, aaine ki sochiye

Dhabbe kya mit sakenge daaman se khoon ke
Soorat to dho ke aa gaye seerat ki sochiye

Kya kya karenge saaf is gardish ke daur mein
Daftar va rahguzar to hui dil ki bhi sochiye

Dasht-e-gham ki teergi , zabt-e-gham ka sharaar
Intakhaab durust kar , intisaab ki sochiye

Raavan ke sar bhi jhuk gaye, insaa'n ke karm dekh kar
Kis ki vijay hui kis par , iss ki bhi to sochiye



Sunday 28 September 2014

ग़ज़ल 14 वतन से मोहब्बत करे जा रहे हैं

वतन से मोहब्बत करे जा रहे हैं
लुटाने की जाँ तन कसम खा रहे हैं

हवा में हरारत अब हाज़िर नहीं है
मौसम के तेवर बदल जा रहे हैं

श्राद्धों के बाद अब नरातों के चलते
दशहरा दीवाली नज़र आ रहे हैं

बढ़ते हैं बाज़ार, मज़बूत रूपया
डॉलर में पैसे वतन ला रहे हैं

जागा जुनूं है तो करना है अब कुछ
दुश्वारियों पर विजय पा रहे हैं

अज़ाब-ए-सियासत के नामी खिलाड़ी
कर्मों की अपने सज़ा पा रहे हैं

हिंदू मुसलमां रहे अब न कोई
इंसानियत की ग़ज़ल गा रहे हैं


Watan se mohabbat kare jaa rahe hain
Lutaane ki jaa'n tan qasam kha rahe hain

Hawaa mein haraarat ab haazir nahin hai
Mausam ke tewar badal jaa rahe hain

Shraadho'n ke baad ab naraato'n ke chalte
Dashehra Diwaali nazar aa rahe hain

Badhte hain baazaar, mazboot rupya
Dollar mein paisa watan laa rahe hain

Jaaga junoo'n hai to karna hai ab kuchh
Dushwaariyo'n par vijaya pa rahe hain

Azaab-e-siyaasat ke naami khilaadi
Karmo'n ki apne sazaa pa rahe hain

Hindu musalmaa'n rahe ab na koi
Insaaniyat ki ghazal gaa rahe hai


Tuesday 23 September 2014

ग़ज़ल -13 भँवर से कश्ती जो निकले

भँवर से कश्ती जो निकले तो फिर कुछ बात होती है
नाख़ुदा को ख़ुदा मानें तो फिर कुछ बात होती है

छौंक है जो झूठ का लज़्ज़त है दौर-ए-ज़िंदगी
सच्चाई से अगर जी लें तो फिर कुछ बात होती है

अँधेरे में है चाहत रौशनी की इस कदर लाज़िम
दिए अब खून से बालें तो फिर कुछ बात होती है

खुशियाँ खरीदने में ही पागल है ये दुनिया
फ़कीरी में जो पा जाएँ तो फिर कुछ बात होती है

विषरहित व दंतहीन है तो फिर क्या बात है
ज़हर पी कर जो न उगले तो फिर कुछ बात होती है

बिगड़ना अब नहीं अच्छा है बिगड़ी बात के ऊपर
बिगड़ी को बना जो ले तो फिर कुछ बात होती है




Bhanwar se kashti jo nikle to fir kuch baat hoti hai
Naakhuda ko Khuda maanei'n to fir kuch baat hoti hai

Chhonk hai jo jhooth ka, lazzat hai daur-e-zindagi
Sachhaai se agar jee lei'n to fir kuch baat hoti hai

Andhere mein hai chaahat raushni ki is qadar laazim
Diye ab khoon se baalei'n to fir kuch baat hoti hai

Khushiyaan khareedne mein hi paagal hai yeh duniya
Faqeeri mein jo pa jaayein to fir kuch baat hoti hai

Vishrahit va dantheen, hain to fir kya baat hai
Zehar peekar jo na ugle to fir kuch baat hoti hai

Bigadna ab nahin achha hai bigdi baat ke oopar
Bigdi ko bana jo le to fir kuch baat hoti hai

Tuesday 16 September 2014

ग़ज़ल -12 किसको न इंतज़ार

किसको न इंतज़ार मसर्रत का इन दिनों
दिखता नहीं तूफान है हसरत का इन दिनों

गिरगिट भी शर्मसार है इंसान देख कर
बदला है रंग इस तरह, फितरत का इन दिनों

जो दिन गए सुकून से एहसान जानिए
दिखता नहीं चलन अब, इबादत का इन दिनों

किस से गिला करें अब, किस किस को दोष दें
बेहाल हुआ हाल है कुदरत का इन दिनों

ख़ाक हो रहे हैं ख़्वाब, रूह संगसार है
बोझ है ज़हन पे सदाक़त का इन दिनों

हिन्दू हैं मुसलमान हैं, इंसान नहीं हैं
फैला ज़हर हवा में है नफरत का इन दिनों

Sunday 14 September 2014

हिंदी दिवस

 हिंदी दिवस का साया, इक दिन की है ये माया

अंग्रेज़ियत के चलते, हिंदी को लंगड़ा पाया



 हिंदी की कर के हिंदी, मत पूछ क्या कमाया

हिंदी में बात करना जब स्कूल को न भाया



 सादर हमें बुलाया, हिंदी में गीत गाया

अंग्रेज़ी की छवि में हिंदी को पलता पाया



हिंदी की उड़ती खिल्ली ने दिल बहुत दुखाया

खुश हूँ कि बच्चा मेरा इस दौड़ में न आया



Sunday 7 September 2014

ग़ज़ल - 9 पानी गया ऊपर से सर के


पानी गया ऊपर से सर के, कर भला अब कुछ तो कर मुल्क पहुँचा है रसातल, ऐ ख़ुदा अब कुछ तो कर


मैं ही मैं हूँ अब जहां में, और सब पैरों की धूल बदग़ुमानी छोड़ कर, तू बाज़ आ, अब कुछ तो कर


लुप्त होते जानवर, व पेड़-पौधे विश्व से प्रकृति का ह्रास कर, की है ख़ता अब कुछ तो कर


ज़िन्दगी का है तकाज़ा, जो न समझा प्यार को मंज़िल-ए-मक्सूद तो है लापता अब कुछ तो कर


फ़ितरत-ए-आदम ने पहुँचाया है अब रोज़-ए-जज़ा साँस लेना भी न हो जाए सज़ा अब कुछ तो कर

Thursday 4 September 2014

ग़ज़ल -11 मर मर के रोज़ ही जीते हैं

मर मर के रोज़ ही जीते हैं
चल आज तो खुल के जीते हैं

अब बस दफ़्तर और नहीं
कुछ तो भी कर चल जीते हैं

हैरान हूँ अब रफ़्तार से मैं
ज़रा रुक तो सही चल पीते हैं

अब बस भी कर चल जीते हैं
अब शाम हुई चल पीते हैं

भेजे की बस कर दिल की सुन
अब दिल की प्यास में पीते हैं

अब होश की बात का नाम न ले
चल बे-होशी तक पीते हैं

उम्मीद पे दुनिया क़ायम है
अब छुट्टी है चल जीते हैं

हर मोड़ पे मुश्किल ताक़ में है
मुश्किल को जीत के जीते हैं

कुछ और जो अब के न हो सके
दो घूँट ज़हर के पीते हैं

Tuesday 2 September 2014

ग़ज़ल - 10 झुक गया सर शर्म से

झुक गया सर शर्म से और हो गई आँखें भी नम
 अक़्स मेरा देख कर ज़ालिम ज़माना डर गया

लक्ष्य सब का एक है, गाँधी से मतलब है यहाँ
बिकते ईमां देख कर मैं अपने अंदर मर गया

घुटता है दम अब तो मगर, जीना मुझे भी है यहाँ
भेड़ियों के बीच इक बकरी का बच्चा फँस गया


हाथ में पतवार है, तलवार में भी धार है
आया जो तूफान तो कश्ती में पानी भर गया

बद से बदतर हो रहा है, हाल अब इस ज़ख़्म का
मौत जब आनी है तो अब धड़ गया कि सर गया

Thursday 28 August 2014

गज़ल - 8 लिखनी है दास्तां तो


लिखनी है दास्तां तो लहू को मिला के लिख तासीर में है नर्मी तो फिर तिलमिला के लिख

बेदर्द ज़माने की हैं अपनी ही सीरतें कुछ यूँ कहो कलाम कि दुनिया हिला के लिख


रस्ता जो चुन लिया है तो मुड़ कर न देखना मतलब के आसमान को ज़हर पिला के लिख


जज़्बात मर न जाएं यूँ ही दौड़ धूप में लफ़्ज़ों से कोरे काग़ज़ पर गुल खिला के लिख

दिखता नहीं ख़ुदा तो यूँ मायूस न रहो खुद अपने ज़हन में ही ख़ुदाई जिला के लिख

Saturday 23 August 2014

ग़ज़ल -7 यूँ न होगी अब बसर

यूँ न होगी अब बसर तन्हा ख़ुदा के वास्ते

वक़्त है तू कर फ़िदा ये जां किसी के वास्ते



लोग कहते हैं कहेंगे, कुछ भी कर के देख लो

ख़ुद को जीतो ग़र जो चाहो तो खुशी के वास्ते



इस सफ़र में गर्द होगी धूप होगी बे-शुमार

सोच लो चलने से पहले, ज़िन्दगी के वास्ते


वाइज़ की सुन के बात जो निकले नमाज़ को

पहुँचे दर-ए-जानां पे हम दिलबरी के वास्ते


पड़ गए जो इश्क़ में तो हो गई उसकी नज़र

साँसें जो बची हैं वो हैं अब बस उसी के वास्ते




Saturday 16 August 2014

कर्म किए जा

कर्म किए जा फल की इच्छा न कर
बस, यही तो परेशानी है ।

नई सरकार क्रान्ति लाएगी
मुझे ही तो लानी है ।

अफ़सर ने कह दिया तो कह दिया
आप का विचार तो नादानी है ।

आदमी से घोड़ा और घोड़े से गधा हो गया हूँ
लेकिन मुझे घास और घूस नहीं खानी है ।

जब औक़ात भी इंसान की न रहे
ऐसा जीना तो फिर बेमानी है ।

कितने रंग बदलते हैं लोग
उनका ख़ून ख़ून, मेरा ख़ून पानी है ।

ग़ज़ल - 6 मायाजाल ही तो है


माया का जाल ही तो है, अपना ही साया तो
राम तो मिलेंगे ही, मिली न माया तो ?

मैं चक्रव्यूह में फँसा ये सोच में गुम हूँ

आ तो गया हूँ पर मैं, निकल ही न पाया तो ?


दरख़्वास्त तो की है, ख़ुदा की शान में मगर ख़त का जवाब आए तो, फिर भी न आया तो ?

यूँ तो ये ज़िन्दगी भी है मस्लात से सनी जीना है एक उम्र ग़र, ज़हर न खाया तो ?

साज़ की आवाज़ में कुछ वो नहीं है बात गाना तो है ये गाना, सुर में न गाया तो ?

चुपड़ी नहीं तो रूखी ही मिल जाएगी रोटी लेकिन ये सोचता हूँ मैं, तनख़्वाह न लाया तो ?

Tuesday 12 August 2014

ग़ज़ल -5 सुबह से शाम हो गई

सुबह से शाम हो गई
कोशिशें नाकाम हुईं ।

इंकलाबी चाह में
अपनी अना की हार हुई ।

सच के जश्न में चले
ज़बान संगसार हुई ।

रोज़ी के इंतज़ाम में
उम्र यूँ तमाम हुई ।

छल-कपट के राज में
फिर से शह और मात हुई ।

सियासी भेड़चाल में
रूह भी हैरान हुई ।

चेहरों पे चेहरे देख के 
चेहरे की न पहचान हुई ।

Monday 11 August 2014

अश्आर-२

 बद-ग़ुमानी बाग़बान की बराए ख़ुदा अपमान है,
ख़ाक-ए-सोहबत पा के ही इंसां जहाँ में महान है


ज़ख़्म-ए-रूह कुरेदते क्यों हो
मैं जो न हो सकूँ, कहते वो क्यों हो

इक ग़म को सीने से लगा रक्खा है,
शेखी, ऐ शैख़ इतनी, बखेरते क्यों हो

मैं तो आज भी अपने ही आप में गुम था
हयात-ए-हवादिस से सताते क्यों हो

Monday 4 August 2014

ग़ज़ल - 4 नमक





 नक़्क़ाश की नज़र से नुमायाँ हुआ नमक
 कुछ ज़ख़्म पर पड़ा था ग़मख़्वार का नमक


 
नज़ीफ-ए-नमकख़्वारी* से अदा हुआ नमक
 नज़्म की नवाज़िश में दरोगा हुआ नमक

* शुद्ध स्वामिभक्ति


 
 नायाब हो गई है इंसां की जात लेकिन
 मज़दूर का पसीना, है और क्या नमक 



नमकीन है निहायत आँखों की ये नमी
नौबत यहाँ तक आई, नेमत हुआ नमक


नापाक़ नाख़ुदा की नवाबी है ये नसीहत अहसान तुझ पे है ये, खाया है जो नमक


चैन-ओ-अमन की निस्बत, यक़ीनन हो बेपनाह
ज़्यादा न हो अगर तो, कम भी न हो नमक

Friday 1 August 2014

अश्आर

ज़िंदा है जो जिग़र में, जज़्बा-ए-जाँनिसारी
जन्नत है ज़िन्दगी ये, जश्न-ए-जहान-ए-फ़ानी*

* नश्वर संसार

नक़्क़ाश की नज़र से नुमायाँ हुआ नमक
कुछ ज़ख़्म पर पड़ा था ग़मख़्वार का नमक


 नज़ीफ-ए-नमकख़्वारी* से अदा हुआ नमक
नज़्म की नवाज़िश में दरोगा हुआ नमक

* शुद्ध स्वामिभक्ति


नायाब हो गई है इंसां की जात लेकिन
मज़दूर का पसीना, है और क्या नमक


नमकीन है निहायत आँखों की ये नमी
नौबत यहाँ तक आई, नेमत हुआ नमक


नापाक़ नाख़ुदा की नवाबी है ये नसीहत
अहसान तुझ पे है ये, खाया है जो नमक


चैन-ओ-अमन की निस्बत, यक़ीनन हो बेपनाह

ज़्यादा न हो अगर तो, कम भी न हो नमक

Tuesday 29 July 2014

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

ये दफ़्तर, ये अफ़सर, ये सरकारी दुनिया
ख़ुशामद के मारे नवाबों की दुनिया
ये बिकते हुए तस्लीमातों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।

मुरदार ईमान, दुश्वार हालत
चाय के प्यालों की बेकल मसाफ़त
फ़ाइलों पे फैली जिरह की हुक़ूमत
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।

तरक्की का लालच, बाबू की ताक़त
किताबों में लिक्खे नियम की हिफ़ाज़त
हर्फ़-ए-मलामत, अफ़्सर की मेहनत
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।

नहले पे दहला है इनकी अदालत
सत्ता के गलियारों की है इबादत
हुनर है यां हैरान, बेघर सदाकत
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।

Tuesday 22 July 2014

ग़ज़ल-3 है सीधी सच्ची बात

1.   है सीधी सच्ची बात मगर सोचते नहीं /
      इंसान ही इंसां के लिए सोचते नहीं

2.   हुक़्मरान ज़ुल्म किए जाने में माहिर /
      मुफ़्लिस की जान के लिए सोचते नहीं

3.    बूढ़े शजर को काट के किवाड़ बन गया /
       चिड़ियों के घर उजाड़ दिए सोचते नहीं

4.    नफ़रत का ज़हर फ़ैल रहा है समाज में /
       बुझ रहे चाहत के दिए सोचते नहीं

5.     चेहरों पे है नकाब रूह ज़ख़्म-ए-हाल है /
        फ़र्ज़ क्या है किस लिए सोचते नहीं


Sunday 13 July 2014

ग़ज़ल - 2 जाने क्या वक्त है


1.  जाने क्या वक्त है क्या दौर है जीने के लिए /
     ज़िंदगी रेत सी, हाथों से फ़िसल जाएगी

2.  ख़त्म होता नहीं, सदियों का सफ़र सड़कों पर /

     एक दिन चीख भी, इस शोर में दब जाएगी

3.  ग़ालिबन ज़ौक-ए-दुआ में है तसव्वुर की कमी / 

     ज़िन्दगी धूप में कोहरे सी पिघल जाएगी

4.   जब तलक सीने में चलती हैं ये साँसें बेहतर /

      है यकीं फिर भी कि इक रोज़ कज़ा आएगी

5.   हैं ख़तावार कि इन आँखों में अब चैन कहाँ /
      ख़्वाब दिखते हैं कि जब आँखों में नींद आएगी

6.    सब्र होता नहीं अब और ज़माने से कहो /

मौत ज़ालिम है, बग़ावत पे उतर आएगी


7. साज़ नासाज़ है जीवन का मगर होश नहीं /

किस तरह सुर में ये अब शोख़ ग़ज़ल गाएगी

Monday 7 July 2014

ग़ज़ल -1 इंसां जो मोहब्बत में


इंसां जो मोहब्बत में फ़रिश्ता वो हुआ है /
पत्थर वो ख़ुदा है कि, तराशा जो हुआ है


है कौन सी मंज़िल मेरी, जाना है कहाँ पर /
अंधा है ये रस्ता कि जिसे मैंने चुना है



इस दिल के सवालात हैं जो देते हैं मुश्किल /

राहत ही नहीं है कि जवाबों का सिला है



सूरज नहीं करता है हर घाम को रौशन /

अपना तो ये घर है कि चरागों का जला है



दरया में है तूफ़ान जहाँ, कर्म ख़ुदा है /

साहिल से भला है जो भँवर, मुझको मिला है



सादादिल-ए-मिज़ाज रक्खा है उम्र-भर

काँटों की सेज पर ग़ुलाबों सा खिला है


चलना है सबब ज़ीस्त का लम्बा ये सफ़र है
रहबर का न साया है यहाँ सिर्फ़ धुआँ है

Wednesday 2 July 2014

Random thoughts

Dated 02.07.2014

1.  इस दिल के सवालात हैं जो देते हैं मुश्किल
राहत ही नहीं है कि जवाबों का सिला है
Based on Ashkon mein jo paya hai by Sahir Sb

2.  सूरज नहीं करता है हर घाम को रौशन
अपना तो ये घर है कि चरागों का जला है

Based on Ashkon mein jo paya hai by Sahir Sb

3.  काफ़िला नहीं, रहगुज़र नहीं
इस सफ़र के हम आश्ना नहीं

क्यों ये प्यास है, क्या तलाश है
ख़ौफ़ में करें क्यों न सर कलम

Based on Waqt ne kiya kya hasee'n sitam by Kaifi Sb.

Dated 03.07.2014

4.  बादल से आसमाँ का रिश्ता है प्यार का
सूरज के देखने को तड़पता नहीं धुआँ

@AshishJog @frozenmusik
Based on Aankhon mein jal raha hai by Gulzar Sb.

Dated 06.07.2014

5.  दरया में है तूफ़ान जहाँ, कर्म ख़ुदा है
साहिल से भला है जो भँवर, मुझको मिला है

@AshishJog
Based on Ashkon mein jo paya hai

6.  सादादिल-ए-मिज़ाज रक्खा है उम्र-भर
काँटों की सेज पर ग़ुलाबों सा खिला है

Thursday 29 May 2014

सच

मुझे तकलीफ़ थी ।
झूठ से,
बोलने से, बोलने वालों से ।

एक दिन
मेरे सच को घेर लिया,
समाज ने,
समाज के ठेकेदारों ने ।

सूली का इंतज़ाम कर लिया,
मुकद्दमा शुरू कर दिया ।

एक-एक करके गवाह बुलाए गए,
मुलज़िम की अक़ीदत का इम्तिहान शुरू हुआ ।

कटघरे के अंदर का आसमान देखा ।
सवालों के तीरों ने,
मौत का नज़ारा दिखाया ।
विपदाओं का अंधड़ प्रचंड हो उठा ।
यूँ लगा,
अब और नहीं,
साँस बाकी ।

आँखों से गिरने का दर्द,
आँखों में आ गया ।
जीते जी मौत का सामान,
तैयार हो गया ।

विश्वास ने सवाल उठा लिया,
सफीना आग के तूफान में आ गया ।

आज देखता हूँ तो

सच की पतवार ही रह गई,
हाथ में ।
डोलते विश्वास को संभाल लिया,
पता नहीं किसने ।
अचानक
कसीदे  पढ़े जाने लगे,
ईमानदारी
और कार्यप्रणाली पर चर्चा हुई ।

कहीं से आवाज़ उठी---
अरे..............
ये तो वही है,
जिसे सच की बीमारी है ।

ख़ैर,
अंतिम निर्णय लिया गया,
एक वर्ष का समय लगा ।
कई मौत मरना पड़ा ।
आरोप पत्र दाखिल न हो सका,
अहसान जताकर बरी किया गया ।

आज सोचता हूँ

तो सच को कटघरे में पाता हूँ ।
सच ने बचा लिया ?
शायद,
या भँवर में ला दिया ?
शायद ।


Saturday 17 May 2014

अब की बार - चुनाव २०१४

चुनावी घमासान मचा है,
एक दूसरे को गिराने में हर कोई लगा है ।
मुझसे बेहतर कोई नहीं - रट लगा रखी है ,
अहद-ए-राह सुनसान पड़ी है ।

खाली न जाए कोई वार
अब की बार - पलटवार ।

एक ओर सत्ता का नशा
दूसरी ओर सत्ता पाने का नशा ।
ये देश का वो है अंग,
जिसे करना ही होगा भंग ।

दिखते कम ही हैं आसार
अब की बार - आर या पार ।

क्षेत्रीय दलों की दुकानें चलेंगी,
एक -एक कुर्सी फ़िर बिकेगी ।
जिसका होगा सूपड़ा साफ़,
उसकी जाग़ीर नीलाम होगी ।

कितना है यह देश पे भार
अब की बार - बेड़ा पार ।

एक ज़दीद दल से आस है,
परवाज़ जिसकी अज़ाब है ।
मसाफ़त पे जिसके सवाल है,
शहादत पे जिसके बवाल है ।

इंतज़ार अब है दुश्वार,
अब की बार - बेकरार ।

बाग

सब्ज़ पेड़ों से गिरती अनगिनत लाशें
सूखी चादर की तरह घास पर पड़ी हैं ।

नियम है कि प्राण निकलने पर
क्रिया जल्द होनी चाहिए ।
लाश सड़ने लगती है ।

मैं पत्तों की लाशें संभाल रहा था ।
मुर्दाघर से बाग बना रहा था ।

प्राणों का संचार है ।
थक कर चूर हूँ,
शायद यही मेरी गति है ।

घुटन

एक चीख लगाने का दिल है
रोंधे हुए गले से आवाज़ तो आए

मैं ऐसे ही ठीक था
क्यों फ़िर दुनिया मसीहा बनाए

इम्तिहान के लिए तैयार हैं
शर्त है ख़ुदा पाक-दामन को तो बचाए

सब्र टूट रहा है, और नहीं
पाँच उंगली एक हों और होश ठिकाने आएं

Monday 14 April 2014

मंथन

सच बोलने को जी करता है
अपने आप से डरता हूँ ।

धुन इक नई सवार हुई है
चैन की बंसी बजाता हूँ ।

मोहब्बत का दिया जल रहा है
खुद को फिर जलाता हूँ ।

दिल का नगर फिर सुनसान है
लिखने में ध्यान लगाता हूँ ।

मायूसियों का इस कदर बोलबाला है
बच्चे पे हाथ उठाता हूँ ।

Thursday 27 March 2014

सवालों के जवाब - और सवाल

हार या जीत ?
ज़िन्दगी क्या और कुछ भी नहीं ?


भगवान या शैतान ?
इंसान होना क्या काफी नहीं ?


ज़मी या आसमान ?
इनके बीच क्या कुछ भी नहीं ?


इस पार या उस पार ?
दरिया का जीना क्या जीना नहीं ?


आता है या नहीं आता ?
जानना ज़रूरी नहीं ?


रुकना है या चलना है ?
सोचना ज़रूरी नहीं ?


सही है या ग़लत ?
छोड़ ना । नहीं ?


लायक हूँ या नालायक ?
मैं तो कुछ भी नहीं

Sunday 16 March 2014

दिल

ये क्या जलता सा रहता है सीने में
बुझता है तो बस अश्कों की बारिश में

पत्थर की कायनात के क्या कहने
भर दिया शीशा एक मेरे ही सीने में

खिलौना समझकर खेलते हैं खेलने वाले
हम टूट जाते हैं बस यूँ ही खेल खेल में

काम से काम रखना भी हुनर है
क्यों रोता है फिर ये सुर्ख़ रंग में

कच्चा खिलाड़ी न समझे कोई
पाले नहीं बदलते हम खेल में


Thursday 13 March 2014

ठीक ठीक लगा लो

ये सब उसी का किया धरा है ।
न मेरी आँख बंद करता,
न मेरा पैर कुर्सी से टकराता,
न मैं दर्द से कराहता ।
अब बाम लगाकर बैठा हूँ ।
भला ये कहाँ का इंसाफ है ।

सुना है सारे जगत का है वो कर्ता धर्ता
उसकी मर्ज़ी बिना हिलता नहीं कोई पत्ता ।
फिर उसकी ऐसी मर्ज़ी क्यों ?
मैंने किसका क्या बिगाड़ा ।
अब पिछले जन्म में कोई ग़लती की भी है,
तो कोई बात नहीं ।
इंसान तो ग़लतियों का पुतला है ।

ठीक ठीक लगा लो
कुछ ले दे के देख लो

इसमें नाराज़ होने की क्या बात है ।
इसमें सज़ा देने की क्या बात है ।
अच्छा ........
इंसान पैदा हुआ है
तो परेशान तो होगा ।
कोई कम तो कोई ज़्यादा ।

तो भी ठीक ठीक लगा लो
कुछ ले दे के देख लो ।

ओहो....
इंसान की नियति है आत्मोन्नति ।
आत्मा उसी का हिस्सा है
जब तक आत्मा पक कर
उस जैसी नहीं होती,
ये जन्म मरण का चक्र चलता रहेगा ।
आत्मा को कर्मों से पका रहे हैं ।

जाने कब पकेगी ?
हमारी दाल गलेगी ?

कम आँच में पकी तो
खीर भी लज़्ज़तदार होती है ।
ज़रा आँच तेज़ करो न ।

ठीक ठीक लगा लो
कुछ ले दे के देख लो

मेरे पास वक्त कम है
और काम बहुत है ।

पकने के लिए खीर नहीं आत्मा है ।

दर्द कुछ कम हुआ लगता है
कुछ पका पका सा लगता है ।

Wednesday 12 March 2014

गुनहगार

कूड़ेदान के बाहर

कचरा डालने वाला,

उतना ही गुनहगार है

जितना घोटालों में लिप्त सियासतदार ।

क्या सोच रहे हैं हज़रात


"मैने तो कचरा सड़क पर डाला था " ।

Sunday 9 March 2014

पाँच तीन चौदह

करार ए मोहब्बत में जो दोनो जहाँ भूल बैठे हैं
दुश्वार है ख़ुदा परस्ती का इंतिसाब अब हमें ।

यूँ बिन बताए ग़ायब न हो जाया करो
तुम्हारी आवाज़ की आदत सी हो गई है हमें ।

तुम्हारा इन्तज़ार मेरी इबादत है
ऐसी इबादत का क्या कि फल की इच्छा है हमें ।

बदहवास रोए चले जा रहे हैं
ये कैसी बदली थी कि गीला कर गई हमें ।

अब्र में तेरी लुकाछिपी से वाकिफ़ हैं
इल्तजा है कि मुख्तसर सा चरागाँ दे हमें ।

मंज़िल से पहले दम मेरा कर्म नहीं है
अभी तो बहुत दूर जाना है हमें ।

Tuesday 25 February 2014

पलाश की लाली

फरवरी की सुबह,
मौसम ने U टर्न लिया है ।
जाती हुई सर्द हवाएँ लौट आई हैं,
शायद कुछ हिसाब बाकी हो ।
ऊनी कपड़े,
जो अपने कार्यक्रम के बाद,
ग्रीन रूम में जाने की तैयारी में थे,
अचानक extempore mode में आ  गए हैं ।
शायद संदूकची उनकी,
परतंत्रता की खिल्ली उड़ाती है ।
सूखे पत्तों का अम्बार है,
पलाश के नीचे ।
काले स्याह फफोलों से भरा,
ये पलाश,
एक और जवानी की राह में है ।
गालों की लाली,
पूरे बदन पर छा जाएगी ।
धूप के अभिवादन पर,
दुल्हन श्रृंगार करेगी ।
सूरज का ताप बढ़ेगा,
और नई पत्तियों को जन्म देने के दर्द में,
लालिमा पेशानी से उतर कर,
पैरों में गिर जाएगी ।
सुर्ख़ लाल खून का एक आँसु,
टपक चुका है ।
इस खून की होली में
ज़मीन आसमान एक से लाल हो जाएंगे,
सर्दियों को विधिवत विदा करेंगे,
और नई कोपलों के श्रृंगार में,
पलाश फिर हरा भरा हो जाएगा ।




Sunday 23 February 2014

धूल

हाथ इस कदर गंदे हैं
कूची कलम तो झाड़ पोंछ दी
रंगों से धूल जाती ही नहीं ।

तकिए का किला मज़बूत है
उसके आगे एक लाँन भी है
मिट्टी से मगर गेहूँ की खुशबू जाती ही नहीं ।

चलते चलते दूर आ गए हैं
क्या क्या नहीं पाया, लेकिन
जो खोया है उसकी याद जाती ही नहीं ।

Monday 17 February 2014

ईमान

ईमान का भाव गिर गया है

खरीद लीजिए ।

हमें कौन सा रखना है सम्भालकर,

भाव बढ़ते ही

बेच दीजिए ।

Sunday 16 February 2014

ईमान


दो कौड़ी एक,

 दो कौड़ी दो,

 दो कौड़ी तीन ।

 मेहरबान, कद्रदान, साहिबान,

 और इस तरह होता है आपका,

 दो कौड़ी में,

 ईमान ।

Sunday 9 February 2014

प्लूटो


मुझसे क्या चाहता हैै नहीं बोलता ।
एकटक देखता रहता है ।
मेरी गोद में आ कर बस जाए बस यही सवाल करता है ।
अपने दर्द को भुलाकर मेरी शान की आज भी गवाही देता है ।
 ज़रज़राते पैैर बहुत भारी हो गए हैं,
दिल में हक से रहता है ।
उम्र के बढ़ते ट्रैफिक में ज़िंदगी और मौत की रस्साकसी ज़ारी है ।
ख़ुदा का लिहाज़ न होता
 तो मेरा दिल भी फूट फूट कर रोता ।
किसी दिन ये भी खाली मिठाई का डिब्बा रह जाएगा,
 और हम 'डायबिटीज़' के साथ आगे चल देंगे ।

Friday 7 February 2014

पत्ते


दो पत्ते,

एक हरा एक सूखा,

एक पेड़ पर रहते थे ।

हरा सूखे की ओट में पैदा हुआ,

पक कर जवान हुआ ।

पेड़ को पालने के ग़ुरूर में,

हवा में खूब झूमता था ।

सूखा पत्ता हवा में घबराता था,

पेड़ को कस के पकड़ लेता ।

एक दिन बारिश के साथ, तेज़ हवा चली ।

हरा पत्ता नहाकर खूब नाचा ।

सूखे पत्ते को 'हार्ट अटैक' आया,

वो मर गया ।

Thursday 6 February 2014

वक्त


वक्त बड़ा कारसाज़ है ।

कितने सूरज कितने चाँद गिनकर बोली लगाता है ।

कितने मोती कितने पत्थर नहीं देखता ।

कितनी खुशी कितने ग़म नहीं दिखते ।

कितनी सड़क कितना कच्चा नहीं दिखाता ।

 कितने आए कितने गए

पीर भी पैगम्बर भी

इसकी ब्रेक नहीं लगती ।

मौजों पे सवार

वक्त,

अनथक, दौड़ता है ।

Tuesday 4 February 2014

कुत्ते का जीवन या कुत्ते की मौत

यूँ ही अचानक मेरे पालतू  लेकिन अंग्रेजी कुत्ते ने  मेरी तर्ज़नी  उंगली को 'बर्ड फ्लू'  के चलते एक पांच सितारा होटल के वरिष्ठ खानसामे की तरह बेझिझक चख लिआ । चखना क्या था कि तंदूरी मुर्ग कि टांग जानकार 'पीस'  ले लिआ । रक्त कि धारा प्रवाह बह निकली, साथ ही मेरी जान भी गले तक जा अटकी । मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था कि जिस अदने प्राणी को वफादारी की मिसाल जाना जाता है, जिसके मालिक के लिए जान देने के किस्से सर्वविदित हैं, और तो और जिसे मैने अपने पुत्र के रूप में पाला, यहाँ तक कि भगवान का दर्जा दे डाला उसने मेरे विश्वास को चकनाचूर कर दिया । इस अनहोनी से मन परेशान हो गया । विचार कौंधा, अगर पालतू कुत्ता भी वफादार नहीं तो इंसान से कैसी उम्मीद ।  यों भी मैं इंसान को कुत्ते से ऊपर का दर्ज़ा नहीं देता लेकिन फिर भी इंसान का बच्चा होने पर, खुद को कम से कम कुत्ते से कम नहीं समझता । बचपन में सुना था, पढ़ा था कि कुत्ते के काटने पर पागल हो जाते हैं । सारा पाठ सहसा मेरी नज़रों के आगे घूम गया । क्या मैं भी ? पागल कहलाउँगा ? अच्छा होगा या बुरा ? मैं समझ नहीं पा रहा था क्या मैं अब पागल हो जाउँगा या मैं पहले से ही पागल हूँ ? एक तरफ ये जीवन का जंजाल छूटने की खुशी थी तो दूसरी ओर इस पागल से जीवन का मोह । क्या दुनियाँ अचानक उल्टी दिखने लगेगी ? या फ़िर पागल के पागल होने पर पागल ठीक हो जाएगा ? इसी पागलपन की उधेड़बुन में मैंने देखा मेरा लाडला, कातर नज़रों से ग्लानि भरे अंदाज़ में मेरा दूसरा हाथ चाट रहा है । अचानक मेरा विश्वास जगा । निरीह सा जानवर मुझे जीवन की सीख दे गया।

दुनियाँ में देर है अंधेर नहीं ।

मैं फिर एक कुत्ते का जीवन जीना चाहता हूँ जिस से कुत्ते की मौत मरना न पड़े । इंसान और कुत्ते में शायद यही असमानता है ।

अहसास

अपनी हालत का अहसास नहीं है मुझे
मैंने औरों से सुना हैै कि परेशान हूँ मैं ।

इन्तज़ार में था कि मिलेगी एक झलक
सोचा था कहीं तो ज़मीं से मिलेगा फ़लक ।

रेल की पटरी की तरह चलता चला गया
स्याही ख़त्म हो गई मैं लिखता चला गया ।

अधरों पे मुस्कान लिए फिरता हूँ
रोज़ मैं बार बार छुपछुप के रोता हूँ ।

जीने की कोई अहम तमन्ना न रही
मरने का कोई खास इरादा न रहा ।

आँख

आँख दिखा न पाई ।

फूलों की खुशी पहचान न पाई ।

बारिश में भीगी पत्तियों की गपशप सुन न पाई ।

चाँद के e-mails पढ़ न पाई ।

बादलों की रूई को समेट न पाई ।

तारों की चादर को ओढ़ न पाई ।

नींद से दिल को उठा न पाई ।

...................दिल पर तो यूँ ही दोष धरते हैं

अाँख ही रास्ता दिखा न पाई ।